उठो अनारकली...
बगीचे का सुहाना सफर
गुरुवार का दिन था, हवा में हलकी सी नमी थी, सूरज भाईसाहब एक अल्हड़ बच्चे की तरह धूसर बादलों के आड़ से आंख मिचौली खेल रहे थे । कुछ घने बदल भी कुछ कम बदमाश नहीं थे, पिचकारी की तरह, मासूम, बिना छाता लिए चलते हुए लोगों पर पानी छेड़ गायब होते रहे।
हम तो इस कश्मकश में थे कि क्या हम अपने जूते टांग दे …मतलब रिटायर हो जाए या फिर कोई दूसरे जूते पहन ले। सोचा, थोड़ी न रिटायर होनी की उम्र है हमारी, तो हमने वॉकिंग शूज पहन लिए और चल पड़े। इरादा पक्का था कि इन बदमाश बादलों को भी बता दे कि हम भी कम नहीं है।
पर गुरुवार के दिन, सवेरे सवेरे, पार्क में? जी हां। इतवार को कौन उठेगा भाई, बेड से ।
खैर, आस पास के बगीचे में चल पड़े। पहली बार जो हम बगीचे में आए थे, शायद बादल भी जान गए और हम पर मेहरबान हो गए। सामने से आने वाले हर शख्स एक दूसरे को दुआ सलाम करते, मुस्कराते चलते थे। हमें लगा शायद इस बगीचे का यह कानून हो वरना हमें निकाल बाहर कर देंगे, हालांकि वहां इस कानून का कोई नोटिस बोर्ड दिखाई नहीं दिया, तो हम भी उनकी कौम में शामिल हो गए।
हम गुनगुना लगे:
मुस्कुराने की वज़ह तुम हो
गुनगुनाने की वज़ह तुम हो...
माना कि कुछ हम से जवान कानों पर एयरपोड्स लगाकर ऐसे दौड़ रहे थे कि जैसे गोली की आवाज़ सुनते ही रेस के घोड़े दौड़ने लगते है, पर ताज्जुब की बात यह थी कि हम उम्र वाले भी कुछ कम नहीं थे। ज़िन्दगी की दौड़ में बहुत कुछ खोने और पाने के बाद, बगीचे में क्या दौड़ना और वो भी इन जवानों के साथ? खैर, अपनी अपनी सोच है।
जैसे आगे निकले, तो एक जवान थक कर गिरा था जिसको कुछ लोग पानी छिड़ का कर समझा रहे थे, “कामयाबी की रेस और ज़िंदगी की दौड़ में फ़र्क है । ज़िन्दगी भली तो कामयाबी मिली।" एक मोहतरमा ने तुरंत अपनी पर्स से दो अरेबियन खजूर निकाल कर उसे खिलाकर दो घूंट पानी पिलाया। यह देख कर, गुजरती हुई एक युवती ने हंसते हुए कहा, " उठो अनारकली, दौड़ शुरू करो।" और सारे लोग जोर से हसने लगे ।
खैर, कुछ देर तक, दोनों जवान और बूढ़े एक बेंच पर बैठे, कामयाबी और ज़िन्दगी की बैलेंस शीट का मापन करते रहे।
चार या पांच राउंड्स होने के बाद, हम एक जगह बैठे ही थे तब एक जनाब ने पूछा, ' यहां कैसे, पहली बार?’
हमनें गुनगुनाते हुए कहा:
' सुना था कि वो, आयेंगे अंजुमन में,
सुना था के उनसे मुलाकात होगी...'
और एक हंसी फूटी, खुराना साहब से जान पहचान हुई। खुराना साहब भी कुछ कम नहीं, कहने लगे " अगर मुलाक़ात होती हैं तो बता दीजिए...फिर मिलेंगे कभी, इस बात का वादा कीजिए... गुनगुना लगे ।
उन्होंने हमारा नाम पूछा, तो हमने कहा, " मुरारीलाल को भूल गए जिसे कुतुब मीनार पर बियर पिला कर आउट कर दिया था आपने? " खुराना साहब कह गए, " अरे जयचंद, बना दिया हमे?"
हम सोच ही रहे थे कि बगीचे की पहली भेंट में इतना सब कुछ हुआ और मुस्कुराने लगे, तभी एक मध्यम उम्र के मियां बीबी पास आ कर बैठे, मुस्कुराए, दुआ सलाम हुआ। फिर मुस्कुराए, कुछ हिचकिचाहटसे पूछा, 'भाई साहब, आज कैसे आना हुआ? आप क्या क्या काम करते हैं।'
पल भर के लिए हम सोचे कि बगीचे में जाऊ तब भी, और न जाऊ तब भी सवाल उठ रहे है, कुछ गुनाह तो नहीं हुआ हमसे? खैर छोड़िए, हमने कहा बहुत कुछ कर लेता हूं, पर सोच रहा हूं कि और क्या करूं? हमारा मतलब था कि अगर हम रिटायर होते है, तो कैसे मशरूफ रहे।
बीवी जी कहने लगी, 'आप की सूरत जानी पहचानी लगती है '। हम ने कहा, "ऐसा काफ़ी लोग कहते रहे पर वो बन्दा अभी तक हमसे रुबरु नहीं हुआ, पर हम तो पहली बार इस बगीचे में आए है"। लेकिन अपने सवाल पर वो अड़ी रही । हम ने हंस कर कह दिया, " अब क्या बताए, हम अपनी चाय खुद बना लेते है, सब्जी वगैरह कट करते है, कभी कभार बना भी देते है, पराठे अच्छे से सेक देते है। हां साफ सफाई तो आम है। और अपने दाल रोटी पर घी के लिए, कुछ काम काज करते है"। हम भी सूरज भाईसाहब की तरह थोड़ा अल्हड़ बन गए।
हमें लगा हमने शायद नमक कुछ ज्यादा ही छेड़ दिया क्यों कि, वो बरस पड़ी, "और ठहरे हमारे पतिदेव जो कुछ नहीं करते - भगवान की तरह एक जगह बैठ जाते है। हमनें देखा है आपको"।
हम अचंभित रह गए, कहा रहती होगी यह?
एक तो बगीचे में अनजान लोग मिल जाना, बात करना वगैरह समझते है, पर लगता है इस मोहतरमा हम पर कहीं से दूरबीन ताने बैठी है, और उसका ब्यौरा इस बगीचे में दे रही है यह ताज्जुब की बात हैं ।
तभी हमारी ट्यूबलाइट जल गई। हमने सोचा, शायद उन्हें कुछ कानूनी सलाह की ज़रूरत है । यह भगवान और भागवान का मामला है। लेकिन ज़िंदगी में आप हमेशा सही नहीं रहते हो, वोही हुआ, कहानी में एक ट्विस्ट।
दोनों ने एक सुर में पूछा, ' आपको कितना मिलता है?'
हम भौचक्का हो गए और सोचें क्यों न थोड़ा गेम खेल डाले, और कहा, "आप तो जानते ही है । घी की जब कमाई हो जाती है तो मीठा खानें को मन होता ही है लेकिन वक्त की थोड़ी पाबंदी है । सभी का भला हो, और खुशहाली फैली रहे ।" उन्होंने कहा, " हम फिर मिलेंगे।" और चल दिए।
टहलते टहलते, कुछ पत्तों को, कुछ फूलों को सहलाते हुए हमने बगल में बैठे दो चार जनों को ख़ुदा हाफ़िज़ कह कर, बगीचे की गेट की तरफ पहुंचे ही थे, फिर से खुराना साहब से मुलाकात हो गई। मुस्कुराते हुए, कह गए, " राजेश खन्ना गार्डन में, चित्रा सिंह की ग़ज़ल, आनन्द के संवाद के बाद, भाई आप तो, अब बावर्ची पिक्चर के किरदार में घुस गए। क्या बात है, बड़े दिलचस्प शख्स हो!“
दोस्तों, हमारी मानो तो, कांक्रीट सड़कों पर दौड़ने से अच्छा बग़ीचे का सफर काफ़ी सुहाना और मनोरंजक होता है, खास कर के गुरुवार के दिन। " सुहाना सफर, और यह मौसम हसीन..."
क्या खयाल है आप का...
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Well written sir !
Very well written Sir!